Professor Akbar Husain
Department of Psychology
Aligarh Muslim University, Aligarh.
Buddha said, “Happiness is in the mind which is released from worldly bondage. The happiness of sensual lust and the happiness of heavenly bliss are not equal to a sixteenth part of the happiness of craving’s end.”
One of the chapters of the Dhammapada is titled, “Happiness” in which some of the Buddha’s teachings about happiness are listed. Buddha described the following elements of a happy life: Living without hate among the hateful, living without the domination of the passions among those who are dominated by the passions, living without yearning for sensual pleasures among those who yearn for sensual pleasures, living without being impeded by the Three Poisons of craving, anger, and ignorance which are seen as hindrances to spiritual progress, giving up thoughts of winning or losing. Overcoming the five aggregates (a sense of objects, emotional attachment to those objects, and categorization of those objects, mental states arising from contact with those objects, a dualistic view of a perceiver and that which is perceived) subjugating the passions. Not being in the company of the foolish but being with the wise.
Noble Eightfold Path is the path that leads to the ultimate happiness, Nirvana, the ultimate Bliss. It is also the path of ultimate happiness. Besides being a path, the Noble Eightfold Path is also a state...a state of mind, a state of happiness, something which is universal, ongoing, consistent, enduring. It is the practice of happiness in our daily existence. Let’s look at this Noble Eightfold path in terms of each of its elements. By examining each step of the way (remembering of course that each step is interconnected with all the other levels), we can see how each one produces it’s kind of happiness.
डॉ० मारूफ उर रहमान
सहायक आचार्य संस्कृत विभाग जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलिज,
दिल्ली विश्वविद्यालय , दिल्ली
योग के आठ अंग तथा इन अंगों के अपने - अपने उप - अंग भी हैं । महर्षि पतंजलि ने जिस अष्टांग योग साधना के बारे में वर्णन किया है वह सब इश्वरदत मोहम्मद साहब की जिन्दगी में परिलक्षित होते हैं ।
यम सामाजिक नैतिकता से जुड़ा हुआ एक अंग है । मोहम्मद साहब ने अपनी जिन्दगी में कभी भी अपशब्द अथवा व्यवहार से किसी को हानि नहीं पहुँचायी , नियम के अन्तर्गत मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने से लेकर उसकी व्यक्तिगत नैतिकता का विचार किया गया है । जबकि इस्लाम में आन्तरिक शुद्धता और वाहा शुद्धता , संतोष , तप , आत्मचिंतन एवं ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण पर बल दिया गया है । आसन का उद्देश्य शारीरिक नियंत्रण करना है , नमाज में भी बुराईयों , पापों , अश्लीलताओं आदि निषिद्ध कामों से रोककर शारीरिक नियंत्रण करना है । प्राणायाम , नाणी साधन और उसके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है । कुरान की तिलावत श्वाँसों के अभ्यास से बेहतर होती है । प्रत्याहार इन्द्रियों के विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है । इस्लाम में भी अपने नफ्ज को बस में करने अर्थात् नफ्स के खिलाफ चलने को कहा गया है । धारणा एवं ध्यान चित्त को एक स्थान विशेष पर केन्द्रित करना अथवा एकाग्र होना ही धारणा है और ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रुपे हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं । इस्लाम में भी पुरसुकून माहोल में इबादते इलाही अर्थात् ईश्वर में ध्यानस्त रहने जैसे नमाज या अन्य ईश्वरीय इबादत करना है । समाधि - योग दर्शन के द्वारा मोक्ष प्राप्ति संभव माना गया है । आत्मा का परमात्मा से मिलन इसी अवस्था में होता है । हजरत मुहम्मद साहब की जिन्दगी में शबे मेराज़ की घटना का काफी महत्व है ।
योग को किसी धर्म सम्प्रदाय विशेष से जोड़कर उसमें दोष करने के बजाय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जोड़कर देखना एक उदार दृष्टि का परिचायक होगा । मुसलमानों के 5 बुनियादी अर्कानों में से एक नमाज है , इसके सारे अरकान योग से ही आरम्भ होते हैं । इस ध्यान विधि ( नमाज ) से जिसके द्वारा व्यक्ति ईश्वर ( माबूद ) के करीब आने की कोशिश करता है । योग और इस्लाम के बीच कई समानताओं में सबसे स्पष्ट समानता नमाज के आसनों और यौगिक क्रियाओं में प्रयुक्त शारीरिक व्यायामों में है । नमाज स पहल नियत की दुआ को जातो ह इन्नी वज्जहतो वज्जोहा " लिल्लजी फतरस्समवाते वल अरज हनीफऊ ' अर्थात् संसार के सभी विषयों से ध्यान हटाकर मैं सारा ध्यान उस मालिक की ओर करता हूँ जा जमीन और आसमान का मालिक है वहीं योग दर्शन के प्रथम सूत्र " योगश्चिवृत्तिनिरोधः ” अर्थात् चित्त की वृत्तिका निरोधित करना योग कहलाता है , दोनों का अर्थ समान ही है । योग हमारे मन , बुद्धि और शरीर को काबू में रखकर पुण्यमय कार्यों को करने के लिए प्रेरित करता है और नमाज से भी यह सब पाप्त होता है । नमाज के अरकान एक तरह से योगासन हैं क्योंकि नमाज और योगासन की क्रियाओं में काफी समानताएँ पायी जाती हैं । जैसे कियाम और ताड़ासन , सजदा और सशांग , बजासन और जुलूस में समानताएँ पायी जाती हैं । योग से पूर्व संकल्प लिया जाता है वहीं नमाज से पूर्व भी नीयत की जाती है । नमाज से पूर्व वुजू किया जाता है । उसी प्रकार योग में शौच का नियम है । यम को हुकूकुन्नास , नियम का हुकूकुल्लाह कहते है । कुरान में सूराए बकरा7 ' में अल्लाह ( ईश्वर ) ने फरमाया बेशक ईश्वर ने तुम पर उसको नियुक्त किया है जिसको इल्म व जिस्म में पूर्ण ( मुकम्मल ) पाया है । अशरफ ए निजामी के अनुसार योग एक धर्म नहीं अपितु विधियों और कौशलों का सामच्चय है ।
Mystical Implications of the number Eighteen
Mathnavi begins with 18 famous lines that are called "cry of the flute". These are like introduction to the Mathnavi.It is possible that it is just as a matter of accident that the famous flute passage consists of 18 lines.but due to these 18 lines, the number 18 has become sacred among the Maulaviya Order.Maulaviyya order is the order of Sufis which follows Rumi. Their base is in Turkey. In ancient Turkey the number 18 was considered sacred. The Maulaviya order may have been influenced by this factor also. The periods of ascetic exercise of the Maulaviyyah order are 9,18,27, or 36 days. Their main chant (zikr) is al-Hayy. This word consists of 18 numbers (according to abjadi numerical system of alphabets where some mystical numerical value is attached to each Arabic alphabet). The metaphysical worldview of Sufis consist of eighteen worlds, just like the 'world of Absolute Existence', the world of the 'Divine Personality' (alaame Zat) and so on.
How numbers could be effective? The knowledge of man is not limited to apparent sciences, but there are esoteric sciences also. This fact is attested by all the great spiritual traditions. In many of these traditions numerical value of alphabets, human sounds etc have mystical, spiritual, and even physical effects. Our science may not have discovered it yet, but the sphere of spiritualism is an altogether different world.. Science may discover many of its realities later on. As science is in the process of gaining knowledge, whatever is not confirmed by science till date, can not be denied as devoid of truth.
Dr.Vikas Kumar
Assistant Professor, Department of Sanskrit, Lalit Narain Mithila University, Darbhanga, Bihar
बुद्ध भाषित वचन विभिन्न कालखण्डों में पालि भाषा में निबद्ध त्रिपिटक में संकलित किये गये। विनय, सुत्त एवं अभिधम्म का त्रिविध विभाजन ही त्रिपिटक कहा जाता है। विनयपिटक में जहाँ भिक्खु-भिक्खुणियों के आचार-सम्बन्धी नियम तथा उनके इतिहास और व्याख्याओं को एकत्रित किया गया है, वहींअभिधम्मपिटक में बुद्ध धम्म तथा दर्शन सम्बन्धी विशिष्टताओं का वर्णन धम्मसड़्गणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गलपञ्ञति, कथावत्थु, यमक, पट्ठान इन सात ग्रन्थों में किया गया है। त्रिपिटक साहित्य का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग सुत्तपिटक है, क्योंकि बुद्ध के धम्म का यथातथ्य रूप से विवरण इसमें प्राप्त होता है। सुत्तपिटक के पाँच भाग दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय, अङ्गुत्तरनिकाय तथा खुद्दकनिकाय हैं। खुद्दकनिकाय में खुद्दकपाठ, उदान, इतिवुत्तक, सुत्तनिपात, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, जातक, निद्देस, पटिसम्भिदामग्ग, अपदान, बुद्धवंस, चरियापिटक इन चौदह ग्रन्थों के साथ पन्द्रहवां धम्मपद भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
धम्मपद भारतीय ज्ञान परम्परा की बौध्द धारा के नैतिक विचारों को व्यक्त करने वाला विश्वकोश है। यह शास्ता की शासनाओं का सार है। यह विभिन्न कालों में चर्या करते हुए विभिन्न भिक्खुओं को अर्हत् गौतम बुद्ध द्वारा दिया गया उपदेश है। यह धम्मपद मधुमक्खियों के छत्ते के समान है, जो अमृतरूपी ज्ञान शहद से लबालब भरा हुआ है। धम्मपद में गाथाओं को विषयवार छब्बीस वर्गो मे विभाजित किया गया है।
यमकवग्ग में ऐसी गाथाओं को संकलित किया गया है जो कि दो-दो के युग्म में हैं। ये दोनों गाथायें परस्पर विपरीत भाव की अभिव्यक्त करती हुई एक ही सन्देश देती हैं। अप्पमादवग्ग में अनेक प्रकार से अप्रमाद की प्रशंसा तथा प्रमाद की निन्दा की गयी है। चित्तवग्ग में चित्त के स्वभाव का चित्रण है। पुप्फवग्ग में पुष्प को उपमान बनाकर नैतिक उपदेशों की शिक्षा दी गई हैं। बालवग्ग में मूर्खों की विशेषताओं का वर्णन किया गया है। पंडितवग्ग में पंडित के लक्षण बताये गये है। अरहन्तवग्ग में काव्यात्मक भाषा में अर्हतों के लक्षण कहे गये हैं। सहस्सवग्ग में सहस्त्र निरर्थक पदों की अपेक्षा एक सार्थक पद, अनेक निरर्थक गाथाओं की अपेक्षा एक सार्थक गाथा इत्यादि धर्मयुक्त बातों का विस्तृत वर्णन मिलता है। पापवग्ग में पाप से बचने तथा पुण्यरत रहने का उपदेश दिया गया है। दण्डवग्ग में किसी भी जीवधारी को पीड़ीत न करने का उपदेश दिया गया है।
जरावग्ग में शरीर की जरा-जीर्णता, रोगग्रस्तता तथा क्षणभंगुरता का उल्लेख करके मानव में वैराग्य उत्पन्न करने का प्रयास किया गया है। अत्तवग्ग में मानव को स्वयं ही अपने भविष्य का निर्माता कहा गया है। लोकवग्ग में लोक के लिए सदाचार, धर्म, अप्रमाद आदि के उपदेश दिये गये हैं। बुद्धवग्ग में बुद्ध के सिद्धांतो, उपदेशों तथा अनुशासन का संक्षिप्त विवेचन किया गया है। सुखवग्ग में उस सुख का माहात्म्य बताया गया है जो सभी सुखोपभोग के उपकरणों से शून्य, सदाचार एवं मैत्रीपूर्ण अवस्था में प्राप्त होता है। कोधवग्ग में क्रोध को महापातक मानते हुए उसके त्याग पर बल दिता गया है। पियवग्ग में कहा गया है कि प्रिय की अप्राप्ति तथा अप्रिय की प्राप्ति दोनों ही दुखद है। मलवग्ग- में अविद्या को सबसे बड़ा मल मानते हुए सभी मलों(पापों) से मुक्ति का उपदेश दिया गया है। धम्मट्ठवग्ग में धर्मिष्ठ पण्डित, धर्मधर, स्थविर, साधु, श्रमण, भिक्षु, मुनि और आर्य के भावात्मक एवं अभावात्मक लक्षणों की विस्तृत मीमांसा की गयी है।
मग्गवग्ग में निर्वाणागामी मार्गों का विस्तृत वर्णन किया गया है। पकिण्णकवग्ग में कहा गया है कि जो कर्तव्य एवं अप्रमादपूर्ण रूप से विचरण करते है ऐसे स्मृतिमान् एवं सचेत भिक्षुओं के आसव अस्त हो जाते है एवं जिनकी बुद्ध, धर्म एवं सघंविषयक स्मृति जागृत रहती है वे सदैव प्रबुद्ध रहते है। निरयवग्ग में उन पापकर्मों का उल्लेख किया गया है जिनसे जीव नरक को प्राप्त होता है। नागवग्ग में वन में एकाकी विचरण करने वाले हाथी के माध्यम से विचरण करने का उपदेश दिया गया है। तण्हावग्ग में मनुष्य के सभी प्रकार के दु:खों के मूल तृष्णा के परित्याग का उपदेश दिया गया है।
भिक्खुवग्ग में भिक्खुओं के लिए संयम, राग-द्वेषशून्यता, अध्यात्मरतता तथा धर्मपरायणता इत्यादि गुणों के अवगाहन के लिये अनासक्ति, मितभाषिता तथा विनयशीलता इत्यादि सदाचारों का उपदेश वर्णित है। ब्राह्मणवग्ग में ब्राह्मणों का स्वरूप एवं सिद्धान्तों की सुन्दर मीमांसा की गयी है। इसमें कहा गया है कि ’न जटाओं से, न गोत्र से और न जन्म से मनुष्य ब्राह्मण नही होता है। जिसमें सत्य और धर्म है, जो अपरिग्रही हो, जो सब बन्धनों को काटकर कभी भी भयभीत नही होता हो, जो विषयो की संगति से मुक्त हो गया हो, जो भूत, भविष्य और वर्तमान में जन्मादि लेने के लिए आसक्ति नही रखता हो वह व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है।
धम्मपद के तृतीयवग्ग में चित्त के बारें में 11 गाथायें हैं, जिनमें चित्त के स्वभाव का चित्रण है। चित्त बड़ा ही चंचल, चपल, कठिनाई से संरक्षित तथा कठिनाई से निवारित होता है। किन्तु मेधावी पुरुष इस प्रकार के चित्त को वैसे ही सीधा करता है, जैसे बाण बनाने वाला बाण को। जलरहित मछली से चित्त की तुलना करते हुए चित्तवग्ग में कहा गया है-
वारिजोव थले खित्तो, ओकमोकतउब्भतो।
परिफन्दतिदं चित्तं, मारधेय्यं पहातवे॥
अर्थात् जैसे जल से बाहर निकाली गई मछली तड़पती रहती है, वैसे ही मार के फंदन से निकलने के लिये यह चित्त तड़फता रहता है। अगली गाथा में कहा गया है कि ऐसे चित्त का दमन करना अच्छा है जिसको वश में करना कठिन है, जो शीघ्रगामी है और जहाँ चाहे वहाँ चला जाता है। अतः चित्त को दमन करना ही सुखकारी है। यह चित्त अत्यंत दुर्दर्श है अर्थात् कठिनाई से दिखाई पड़ने वाला है, बड़ा चालाक है, जहाँ चाहे वहाँ चला जाता है, अतः एव समझदार व्यक्ति को चाहिये कि वह ऐसे चित्त की रक्षा करे क्योंकि सुरक्षित चित्त बड़ा सुखदायी होता है। जो दूरगामी, एकाकी विचरण करने वाला, निराकार, गुह्याशय चित्त का सयंम करेंगे, वे ही मार के बंधन से मुक्त होंगे।
जिस व्यक्ति का चित्त स्थिर नहीं, जो सद्धर्म को नहीं जानता तथा जिसका चित्त कभी प्रसन्न नहीं होता, वह कभी प्रज्ञावान् नहीं हो सकता। इसके विपरीत जिसका जिसका चित्त मल रहित है, स्थिर है तथा जो पाप-पुण्य विहीन है, उस जागृत मानव के लिये भय नहीं होता।
शरीर की उपमा घट से तथा चित्त की उपमा नगर से देते हुए धम्मपद में कहा गया है कि शरीर को घट की भांति नश्वर जानने पर तथा चित्त को नगर की भांति जान लेने पर, प्रज्ञारूपी हथियार से युद्ध करे। विजित चित्त की नगर की भांति रक्षा की जानी चाहिये तथा अनासक्त भाव रखना चाहिये। यह शरीर तुच्छ है तथा शीघ्र ही चेतनारहित होने पर निरर्थक काठ की भांति जमीन पर जा पड़ेगा।
शत्रु शत्रु की तथा वैरी वैरी की जितनी हानि नहीं करता है, कुमार्ग पर अग्रसर चित्त मनुष्य की उससे कहीं अधिक हानि करता है। माता-पिता, अन्य रिश्तेदार मनुष्य की उतनी भलाई नहीं करते हैं, जितनी भलाई सन्मार्ग की ओर गया हुआ चित्त करता है।
धम्मपद का प्रभाव परवर्ती बौद्ध ग्रन्थों पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। महायानी ग्रन्थ लकांवतारसूत्र में चित्त के सन्दर्भ में कहा गया है कि चित्त की ही प्रवृत्ति होती है तथा चित्त की ही विमुक्ति होती है। चित्त को छोड़कर अन्य किसी वस्तु की न उत्पत्ति होती है और न ही नाश होता है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि चित्त की ही सासांरिक भौतिक विषयों के प्रति भोग निमितार्थ प्रवृत्ति होती है तथा जब चित्त में वासना ग्रस्त विषयों के कलुषित संस्कार नष्ट हो जाते है, तब इसकी विमुक्ति अर्थात् निर्वाण हो जाता है। चित्त मन का केन्द्र बिन्दु है जो हमें आध्यात्मिक तथा व्यवहारिक जगत् से जोड़ता है। इस प्रकार विवेचनोपरांत कहा जा सकता है कि धम्मपद के चित्तवग्ग में जिस तरह से चित्त का विश्लेषण किया गया है, वैसा चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है।
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